उर्दू नाट्य शैली नक्काली रजवाड़ों और रियासतों का दौर खत्म होने के साथ भले ही समाप्त हो गई, लेकिन नक्काल अभी भी है। जो बुंदेलखंड के झांसी में भरण पोषण के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
दिल्ली, डीजे संस्कृति डेस्क : मुगल काल के बादशाहों Mughal Emperor के मनोरंजन की अनूठी शैली नक्काली अब लुप्त हो गई हैं। अब यह शैली देखने को नहीं मिलती। सांस्कृतिक जानकारों की मानें तो 17वी शताब्दी तक राजाओं के संरक्षण में इसका स्वर्णकाल Golden Age माना गया है।
नक्काली नाट्य शैली के खत्म होने के बाद इससे जुडे कलाकारों यानी नक्कालों की स्थिति खराब होती चली गई। हालात ये हुए कि ये नक्काल कव्वाल बन गए या फिर अन्य व्यवसाय से जुड़ कर अपना जीवन यापन कर रहे है। इन्हें यहां बसाने का श्रेय झांसी के राजा गंगाधर राव को जाता हैं।
महाराजा गंगाधर राव ने बसाए थे नक्काल
बुंदेलखंड में महाराजा गंगाधर राव Maharaja Gangadhar Rao ने इस शैली के कलाकारों को यहां बसाया था। शहर के बीच बसे नक्कालाें के इस क्षेत्र को नक्कालों की टोरिया Nakkalo Ki Toria के नाम से जाना जाता हैं। यहां करीब सैकड़ा भर नक्काल हैं। जो इस शैली उदासीनता के चलते अपने उस हुनर को भूलने लगे हैं। पूरे भारत में झांसी जनपद ही एक ऐसा शहर है, जहां नक्कालों को बसाया गया था।
ओरछा रियासत से झांसी आए थे नक्काल
नक्कालों की टौरिया में रहने वाले नक्काल उस्ताद राजू उर्फ रमजान वारसी ने बताया कि लली के दुलारे उनके परदादा थे। जो ओरछा Orchha Estate में रहते थे। जिनके दो लड़के हुए अब्बू और अब्बू वह आकर झांसी में बसे। उनका ही कुनबा नक्कालों की टोरिया बन गया। बब्बू के पांच बेटे है। अहमद, कम्मू, मास्टर हबीब, हमीद और नसीब। जबकि अब्बू के पुत्र बताशा थे। राजू मास्टर हबीब के पुत्र हैं।
उर्दू नाट्य शैली है नकल से निकली नक्काली
संस्कृति विभाग Cultural Department के अनुसार नक्काली उर्दू नाट्य शैली हैं। रंगकर्मी आरिफ शहडोली बताते है कि मुस्लिम समुदाय में नक्काली रंगमंच Rangmanch का चलन रहा है। जिसकी उत्पत्ति का केंद्र भारत को ही माना जाता है। नक्काली शैली प्रमुख रूप से बादशाहों का मनोरंजन करने वाली रही है। जो लोक कथाओं पर आधारित होती थी।
इसमें कलाकार उर्दू मिश्रित भाषा में बातचीत करते थे। जिसमें पद्य चौबेला, शेरो-शायरी का प्रयोग करते थे। नक्कालों को भाण भी कहा जाता है। जो भरत मुनि की नाट्य परंपरा के दस रूपकों में से एक रूपक के नाम से जाना जाता है।
बादशाहों के साथ खत्म हो गया सुनहरा दौर
बादशाहों से शुरू हुआ मनोरंजन का वह खूबसूरत दौर उनके साथ ही खत्म हो गया। आरिफ शहडोली बताते है इस अनूठी शैली का स्वर्णिम काल राजाओं के साथ ही समाप्त हो गया। नक्काली उर्दू नाट्य की अनोखी शैली हैं। जिसके कद्रदान लंबे समय तक रियासतें और रजवाड़े रहे हैं। लेकिन समय के साथ ही यह शैली पूरी तरह से खत्म हो गई।
स्त्री पुरुष दोनों की भूमिका निभाता था नक्काल राजाओं का मनोरंजन करने के लिए नक्काल आदमी और औरत दोनों के ही किरदार निभाता था। वह महलों में होने वाली छोटी-छोटी घटनाओं पर नजर रखता था। जिसे दरबार में पेश कर मनोरंजन करता था। बताशा, बब्बू, अहमद, कय्यूम, हबीब चर्चित नक्काल रहे हैं। आरिफ के अनुसार खुदा दोस्त, सुल्तान, फिरोज माली, बहादुर लडकी, लैला-मजनू, हीर-रांझा, दहलीज के पार, शीरी फरहाद आदि प्रमुख नाटक रहे है।
कुछ ऐसी हुआ करती थी नक्कालों की वेश-भूषा
जानकारों के मुताबिक नक्कालो की वेश भूषा में राजसी, बादशाही परिधानों को प्रयोग किया जाता था। महिला पात्र का किरदार निभाने के लिए नक्काल डसरा, जम्फर सहित दुपट्टे आदि का प्रयोग करते थे। नक्काली में मुख्य रूप से ढोलक और नक्कारा, नक्कारियों के साथ पैर वाले हारमोनियम का प्रयोग भी किया जाता था।
संस्कृति विभाग के अफसर डॉक्टर रत्नेश वर्मा के अनुसार करीब डेढ दशक पहले झांसी में नाट्य समारोह कराया गया था। जिसमें इस शैली के कलाकारों को आमंत्रित किया गया था। जिनके मंचन में पुरातन शैली दिखी नहीं। वर्तमान में इस शैली की मौलिकता खो गई हैं।
(Disclaimer : यह रिपोर्ट संस्कृति विभाग के जानकारों, रंगकर्मी और नक्कालों से बातचीत पर आधारित है।)